નીકો લાગત મનોરથ પુરૂષોત્તમ માસ તણો🌹 🌹૧) સ્નાન-યાત્રા સામાન્યત: સ્નાન યાત્રા જયેષ્ઠ સુદ પૂર્ણિમાના દિવસે થાય છે પરંતુ પુરૂષોત્તમ માસની સુદની પૂર્ણિમાના દિવસે આ ઉત્સવ મનાવવામાં આવે છે. સ્નાન યાત્રા એ શ્રીનંદરાયજીએ પોતાના રાજકુમાર શ્રીકૃષ્ણનો વ્રજના રાજા તરીકે રાજયભિષેક કર્યો હતો તેની ભાવના છે. આ ઉત્સવમાં આગળનાં દિવસે જલ લાવી રાત્રીનાં સમયે તેને સતપ કરી તે જલમાં કદમ, કમળ, ગુલાબ, ગુલછડી, સોનજુહી, જુઇ, ચંપો, ચમેલી, મોગરો અને તુલસી આદી પધરાવે છે. રાત્રીભર શિતલ સુગંધયુક્ત થયેલા જલની બીજે દિવસે સવારે પુજા કરવામાં આવે છે શ્રીજી બાવા ને કેસરી કિનારી વાળી સફેદ ધોતી ઉપરણાં ધારણ કરાવવાંમાં આવે છે અને તિલક કરવામાં આવે છે. મંગલામાં દર્શન ખુલ્યા બાદ જલથી વેદોચ્ચારમંત્ર સહિત શંખથી પ્રભુને સ્નાન કરાવાય છે. ગોપીવલ્લભ ભોગ માં પ્રભુ આંબાની કેરીઓ આરોગે છે, ચિરોંજીનાં લાડુ, લીલોમાવો વગેરે ધરાવાય છે. આજ થી એક મહિનો શ્રીયમુનાજીના ગુણગાન ખાસ ગાવામાં આવે છે. આ સમયે પ્રભુ વ્રજભક્તો સાથે જલ-નાવ-વિહાર કરે છે. ૨) રથ-યાત્રા સામાન્યત: અષાઢ સુદ બીજ અથવા ત્રીજના દિવસમાં જ્યારે પુષ્ય નક્ષત્ર આવે...
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Showing posts from May, 2018
श्रीकृष्ण:शरणं मम
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एक प्रश्न आया-श्रीकृष्ण:शरणं मम मंत्र का अनुष्ठान कैसे किया जाय? अष्टाक्षर मंत्र से ऐसा लगता है जैसे यह अनुष्ठान करने की चीज है।यह मंत्र तो केवल कहने के लिये है।वस्तुतः यह भगवान का अष्टाक्षर मंत्रात्मक स्वरुप है।जब हम बोलते हैं-श्रीकृष्ण मेरी शरण अर्थात शरणस्थल हैं तब इसका स्वरुप प्रकट होकर हमे इसके घेरे मे लेता है।हम अपने आपको चारों ओर से इससे घिरा हुआ पाते हैं।यह अनुग्रह है।अनुग्रह का अनुष्ठान नहीं किया जाता।अनुग्रह के आगे अनुष्ठान बहुत छोटी चीज है जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये होती है। भगवान अपनी शरण प्रदान करें,हमे अपनी शरण मे लें-देखा जाय तो यह परम स्वार्थ है जो दैवी जीव के परम हित के अर्थ मे है। एक दूसरी दृष्टि से हम हवेली मे या घर मे अपने सम्मुख विराजमान स्वरुप को देखते हुए श्रीकृष्ण:शरणं मम का जप या उच्चारण करते हैं।अच्छा होगा अगर उस स्वरुप को अपने हृदय मे विराजमान अनुभव करते हुए श्रीकृष्ण:शरणं मम बोलते रहें।मानसी सा परा मता। प्रभु बाहर,भीतर दोनों जगह विद्यमान हैं किंतु हृदय मे उनका अनुभव करने से हम उनके ज्यादा समीप आ जाते हैं।हम सदा हृदय मे ही रहते हैं।बाहर खुद से दू...
श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु के सांस्कृतिक के इतिहास घटना
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श्रीवल्लभाघीश की जय हो युगदृष्टा श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु ••••••••••••••••••••••••••• ।। श्री कृष्णाय नम: ।। व्यक्तित्व एव कृतित्व: शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रथम आचार्य एवं पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य का प्रागट्य के भारतसांस्कृतिक के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। आपने भारतीय तत्व चिन्तन को समग्र दृष्टि दी, तथा भारतीय धर्म साधना को नया आयाम दिया। विशेष रूप से आपने पुष्टिमार्गीय धर्म साधना को नया स्वरूप दिया। पुष्टिमार्ग की सहज मान्यता है कि आपका पृथ्वी पर प्रागट्य ईश्वरीय आदेश से दैवी जीवों के उद्धार के लिए हुआ था। पूर्वज: महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी के पूर्वज भारत के दक्षिण में स्थित कांकरवाड ग्राम के निवासी थे। इस ग्राम में कलकल निनादिनी कृष्णा नदी बहती है। इस नदी के समीप तीन पर्वत शिव के धाम स्थित हैं जो कालेश्वर, भीमेश्वर एवं श्री शैल नाम से जाने जाते हैं। यह ग्राम आम्र, पलास, निम्ब, इमली, नारिकेलि आदि मनमोहन वृक्षों से आच्छादित है। आपके पूर्वज उच्च कोटि के वेलान्तरीय तैलंग ब्राण थे तथा कृष्ण यजुर्वेदीय शाखाओं का अध्ययन करते थे।आपके ...
श्रीमहाप्रभुजी का संदेश:
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श्रीमहाप्रभुजी का संदेश: जिस समय किसी भी प्रकार तुम बहिर्मुख होगे अर्थात भगवान मे चित्त न रखकर अन्य विषयों मे चित्त रखोगे उस समय काल के प्रवाह मे रहे हुए देह और चित्तादि भी सब प्रकार तुम्हारा भक्षण करेंगे ऐसा मेरा मत है। भगवान श्रीकृष्ण लौकिक नहीं हैं और वे लौकिक को नहीं मानते।इसलिये श्रीकृष्ण मे ही प्रेम होना चाहिये।इस लोक संबंधी सर्वस्व वही श्रीकृष्ण हैं और परलोक भी वही हैं अत एव सर्वभाव के द्वारा वही गोपीश श्रीकृष्ण सेवन योग्य हैं और तुम्हें ऐहिक तथा पारलौकिक सर्व पदार्थ वे ही देंगे।' चिंता एक ही होती है लोक संबंधी या परलोक संबंधी।इसके लिये उन वैष्णवों के जीवन का अवलोकन किया जा सकता है जो पूरी तरह प्रभु को समर्पित रहे।उनका जीवन कैसे चला?भगवद् इच्छा से जब जैसा होना था होता रहा अभाव भी आये,पूर्तियां भी होती रहीं मगर जीवन मे आनंद बना रहा।आज भी कहीं कहीं इसे देखा जा सकता है। थोडा ग्रहों की दृष्टि से देखें तो ग्रहों की दृष्टि होती है संसारी मनुष्यों पर।उनके कर्मानुसार ग्रह अभाव और पूर्ति की स्थिती उत्पन्न करते रहते हैं।वैष्णव पर दृष्टि होती है प्रभु की।केवल दृष्टि ही नहीं होती,व...
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पुष्टिमार्ग मे अन्यमार्गीय से सत्संग न करने का जोर है।यह इसकी सूक्ष्मता का द्योतक तो है ही,अपने आपमे पर्याप्त मनोवैज्ञानिक कारण लिये हुए भी है।वल्लभ ने चित्त को प्रभु मे पिरोने के लिये कहा।चित्त की अपनी यह विशेषता है कि यह क्लिष्ट वृत्तियों मे नहीं पिरो सकता,अक्लिष्ट वृत्तियों मे ही पिरो सकता है।सम सरल अनुकूल विषयों मे चित्त आसानी से पिरोया जा सकता है।जरा सी भी क्लिष्टता हो तो यह संभव नहीं होता। पुष्टिमार्ग ठाकुरजी के निजजनों का मार्ग है।अन्य मार्ग भी हो सकते हैं जिनमे ठाकुरजी के निजजनों का भाव है लेकिन यदि वह पुष्टिमार्ग के भाव से नहीं है तो पुष्टिमार्गीय वैष्णव का उसमें स्थित होना मुमकिन नहीं होता। फिर क्या करना चाहिए?जो भी पुष्टिमार्गीय वैष्णव हैं उन्हे उनके भाव के अनुरूप सत्संग मे लीन रहना चाहिए।जहां अन्यता प्रतीत हो वहां बने रहने का आग्रह रखना बाधक है।हां।चित्त की एक ऐसी स्थिति है जिसमें चित्त सीधा,सरल तथा स्पष्ट होता है।उसमे क्लिष्ट वृत्ति जन्य कोई बाधा नहीं होती।यह स्थिति आचार्यों तथा भगवदीयों की हो सकती है अतः उनमे"अन्यमार्ग"को लेकर कोई विक्षेप नहीं होता।वे उदारता...