पुष्टिमार्ग मे अन्यमार्गीय से सत्संग न करने का जोर है।यह इसकी सूक्ष्मता का द्योतक तो है ही,अपने आपमे पर्याप्त मनोवैज्ञानिक कारण लिये हुए भी है।वल्लभ ने
चित्त को प्रभु मे पिरोने के लिये कहा।चित्त की अपनी यह विशेषता है कि यह क्लिष्ट वृत्तियों मे नहीं पिरो सकता,अक्लिष्ट वृत्तियों मे ही पिरो सकता है।सम सरल अनुकूल विषयों मे चित्त आसानी से पिरोया जा सकता है।जरा सी भी क्लिष्टता हो तो यह संभव नहीं होता।
पुष्टिमार्ग ठाकुरजी के निजजनों का मार्ग है।अन्य मार्ग भी हो सकते हैं जिनमे ठाकुरजी के निजजनों का भाव है लेकिन यदि वह पुष्टिमार्ग के भाव से नहीं है तो पुष्टिमार्गीय वैष्णव का उसमें स्थित होना मुमकिन नहीं होता।
फिर क्या करना चाहिए?जो भी पुष्टिमार्गीय वैष्णव हैं उन्हे उनके भाव के अनुरूप सत्संग मे लीन रहना चाहिए।जहां अन्यता प्रतीत हो वहां बने रहने का आग्रह रखना बाधक है।हां।चित्त की एक ऐसी स्थिति है जिसमें चित्त सीधा,सरल तथा स्पष्ट होता है।उसमे क्लिष्ट वृत्ति जन्य कोई बाधा नहीं होती।यह स्थिति आचार्यों तथा भगवदीयों की हो सकती है अतः उनमे"अन्यमार्ग"को लेकर कोई विक्षेप नहीं होता।वे उदारतापूर्वक अपने मार्ग मे सहजता से बने रहते है।समस्या आती है साधनदशा मे जब चित्त को पुष्टिमार्ग की भावनाओं मे ढालना होता है।जिसमे अन्यमार्ग की भावना नहीं, जो सभी मार्गों मे शामिल हो जाता है उसे कोई समस्या नहीं होती,समस्या उसे होती है जो केवल पुष्टिमार्गीय भावना के अनुरुप जीवनपद्धति अपनाने का प्रबल इच्छुक है।इससे कई बार कई प्रश्न खडे होते हैं जिनके समाधान की जरूरत पडती है।अन्यथा
इसमे कोई बाधा नहीं है।जैसे सभी भक्त अपने अपने मार्ग तथा इष्ट मे आस्थावान होकर जीवनयापन करते हैं वैसा ही एक पुष्टिमार्गीय वैष्णव भी करता रह सकता है।इसके लिये यदि वह अन्यमार्ग के सत्संग मे शामिल नहीं होता तो कोई दोष नहीं।उसे केवल इतना ध्यान रखना चाहिये कि वह अन्यमार्ग की कमियाँ न ढूंढने लग जाय,उनसे अपने सिद्धांत की तुलना न करने लगे।
एक खास बात यह स्मरण करने योग्य है कि अन्यमार्ग को विरोधी या शत्रु की तरह देखने के बजाय यह सोचे कि अन्यमार्ग कहां ले जा रहा है?क्या यह प्रभु से विमुख है?ऐसा कौनसा मार्ग है जो प्रभु से विमुख है?सारे मार्ग सबको प्रभु के पास ले जाते हैं।पुष्टिमार्गीय वैष्णव अपने तरीके से जाता है।जो जहाँ है वह उसी दिशा,उसी मार्ग से मंजिल तक पहुंचेगा जैसे कोई उदयपुर से नाथद्वारा पहुंच रहा है,कोई चित्तौड़ से,कोई कांकरोली से।सब एक जगह से कैसे आ सकते हैं?यदि कोई जहां है जिस मार्ग से आ सकता है वह कहीं ओर से,किसी ओर मार्ग से आना चाहे तो देर भी लगेगी,व्यर्थ परिश्रम बढेगा और लक्ष्य अप्राप्ति की समस्या दीर्घकालीन हो जायेगी।इसलिये इसे बाधक बताया यह उचित ही है।
पुष्टिमार्गीय वैष्णव पुष्टिरीति से ही शीघ्र प्रभु को पा सकता है।यदि कहा जाय वह अन्य ज्ञान,सत्संग,जानकारी का अर्जन करता चले त़ो यह वैसा ही है जैसे परीक्षा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को अन्य ज्ञान भी इकट्ठा करने की सलाह दी जाय।उनके पास समय कहां है?यदि वे ऐसा करते हैं तो वे खुद को हानि पहुंचाते हैं इसीलिये आचार्यों ने इस अन्यत्र प्रवृत्ति को कठोर शब्दों से हतोत्साहित किया।ठीक है सभी मार्गों मे सभी गुरु यही कहते हैं-अपने मार्ग के नियमों का एकाग्रचित्त होकर दृढता से पालन करो।'यदि कोई ऐसा करने मे समर्थ है तो उसकी सफलता पर कोई संदेह नहीं रह सकता।
अपने मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानने की बात उसमे एकाग्र होकर समर्पित भाव से रहने के लिये है,न कि तुलना करने के लिये।सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रलोभन ध्यान अपने लक्ष्य से हटाता है।इससे ध्यान दो जगह रहता है।यदि ध्यान एक ही जगह नहीं है,चित्त प्रभु मे पिरोया हुआ नहीं है तो तल्लीनता से सेवा कैसे होगी जिसकी आज्ञा है-चेतस्तत्प्रवणं सेवा।फिर मानसी को और अधिक बताया।जाहिर है यह सब ओर से ध्यान हटा लेने पर ही संभव है।
चित्त को प्रभु मे पिरोने के लिये कहा।चित्त की अपनी यह विशेषता है कि यह क्लिष्ट वृत्तियों मे नहीं पिरो सकता,अक्लिष्ट वृत्तियों मे ही पिरो सकता है।सम सरल अनुकूल विषयों मे चित्त आसानी से पिरोया जा सकता है।जरा सी भी क्लिष्टता हो तो यह संभव नहीं होता।
पुष्टिमार्ग ठाकुरजी के निजजनों का मार्ग है।अन्य मार्ग भी हो सकते हैं जिनमे ठाकुरजी के निजजनों का भाव है लेकिन यदि वह पुष्टिमार्ग के भाव से नहीं है तो पुष्टिमार्गीय वैष्णव का उसमें स्थित होना मुमकिन नहीं होता।
फिर क्या करना चाहिए?जो भी पुष्टिमार्गीय वैष्णव हैं उन्हे उनके भाव के अनुरूप सत्संग मे लीन रहना चाहिए।जहां अन्यता प्रतीत हो वहां बने रहने का आग्रह रखना बाधक है।हां।चित्त की एक ऐसी स्थिति है जिसमें चित्त सीधा,सरल तथा स्पष्ट होता है।उसमे क्लिष्ट वृत्ति जन्य कोई बाधा नहीं होती।यह स्थिति आचार्यों तथा भगवदीयों की हो सकती है अतः उनमे"अन्यमार्ग"को लेकर कोई विक्षेप नहीं होता।वे उदारतापूर्वक अपने मार्ग मे सहजता से बने रहते है।समस्या आती है साधनदशा मे जब चित्त को पुष्टिमार्ग की भावनाओं मे ढालना होता है।जिसमे अन्यमार्ग की भावना नहीं, जो सभी मार्गों मे शामिल हो जाता है उसे कोई समस्या नहीं होती,समस्या उसे होती है जो केवल पुष्टिमार्गीय भावना के अनुरुप जीवनपद्धति अपनाने का प्रबल इच्छुक है।इससे कई बार कई प्रश्न खडे होते हैं जिनके समाधान की जरूरत पडती है।अन्यथा
इसमे कोई बाधा नहीं है।जैसे सभी भक्त अपने अपने मार्ग तथा इष्ट मे आस्थावान होकर जीवनयापन करते हैं वैसा ही एक पुष्टिमार्गीय वैष्णव भी करता रह सकता है।इसके लिये यदि वह अन्यमार्ग के सत्संग मे शामिल नहीं होता तो कोई दोष नहीं।उसे केवल इतना ध्यान रखना चाहिये कि वह अन्यमार्ग की कमियाँ न ढूंढने लग जाय,उनसे अपने सिद्धांत की तुलना न करने लगे।
एक खास बात यह स्मरण करने योग्य है कि अन्यमार्ग को विरोधी या शत्रु की तरह देखने के बजाय यह सोचे कि अन्यमार्ग कहां ले जा रहा है?क्या यह प्रभु से विमुख है?ऐसा कौनसा मार्ग है जो प्रभु से विमुख है?सारे मार्ग सबको प्रभु के पास ले जाते हैं।पुष्टिमार्गीय वैष्णव अपने तरीके से जाता है।जो जहाँ है वह उसी दिशा,उसी मार्ग से मंजिल तक पहुंचेगा जैसे कोई उदयपुर से नाथद्वारा पहुंच रहा है,कोई चित्तौड़ से,कोई कांकरोली से।सब एक जगह से कैसे आ सकते हैं?यदि कोई जहां है जिस मार्ग से आ सकता है वह कहीं ओर से,किसी ओर मार्ग से आना चाहे तो देर भी लगेगी,व्यर्थ परिश्रम बढेगा और लक्ष्य अप्राप्ति की समस्या दीर्घकालीन हो जायेगी।इसलिये इसे बाधक बताया यह उचित ही है।
पुष्टिमार्गीय वैष्णव पुष्टिरीति से ही शीघ्र प्रभु को पा सकता है।यदि कहा जाय वह अन्य ज्ञान,सत्संग,जानकारी का अर्जन करता चले त़ो यह वैसा ही है जैसे परीक्षा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को अन्य ज्ञान भी इकट्ठा करने की सलाह दी जाय।उनके पास समय कहां है?यदि वे ऐसा करते हैं तो वे खुद को हानि पहुंचाते हैं इसीलिये आचार्यों ने इस अन्यत्र प्रवृत्ति को कठोर शब्दों से हतोत्साहित किया।ठीक है सभी मार्गों मे सभी गुरु यही कहते हैं-अपने मार्ग के नियमों का एकाग्रचित्त होकर दृढता से पालन करो।'यदि कोई ऐसा करने मे समर्थ है तो उसकी सफलता पर कोई संदेह नहीं रह सकता।
अपने मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानने की बात उसमे एकाग्र होकर समर्पित भाव से रहने के लिये है,न कि तुलना करने के लिये।सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रलोभन ध्यान अपने लक्ष्य से हटाता है।इससे ध्यान दो जगह रहता है।यदि ध्यान एक ही जगह नहीं है,चित्त प्रभु मे पिरोया हुआ नहीं है तो तल्लीनता से सेवा कैसे होगी जिसकी आज्ञा है-चेतस्तत्प्रवणं सेवा।फिर मानसी को और अधिक बताया।जाहिर है यह सब ओर से ध्यान हटा लेने पर ही संभव है।
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