श्रीकृष्ण:शरणं मम

एक प्रश्न आया-श्रीकृष्ण:शरणं मम मंत्र का अनुष्ठान कैसे किया जाय?
अष्टाक्षर मंत्र से ऐसा लगता है जैसे यह अनुष्ठान करने की चीज है।यह मंत्र तो केवल कहने के लिये है।वस्तुतः यह भगवान का अष्टाक्षर मंत्रात्मक स्वरुप है।जब हम बोलते हैं-श्रीकृष्ण मेरी शरण अर्थात शरणस्थल हैं तब इसका स्वरुप प्रकट होकर हमे इसके घेरे मे लेता है।हम अपने आपको चारों ओर से इससे घिरा हुआ पाते हैं।यह अनुग्रह है।अनुग्रह का अनुष्ठान नहीं किया जाता।अनुग्रह के आगे अनुष्ठान बहुत छोटी चीज है जो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये होती है।
भगवान अपनी शरण प्रदान करें,हमे अपनी शरण मे लें-देखा जाय तो यह परम स्वार्थ है जो दैवी जीव के परम हित के अर्थ मे है।
एक दूसरी दृष्टि से हम हवेली मे या घर मे अपने सम्मुख विराजमान स्वरुप को देखते हुए श्रीकृष्ण:शरणं मम का जप या उच्चारण करते हैं।अच्छा होगा अगर उस स्वरुप को अपने हृदय मे विराजमान अनुभव करते हुए श्रीकृष्ण:शरणं मम बोलते रहें।मानसी सा परा मता।
प्रभु बाहर,भीतर दोनों जगह विद्यमान हैं किंतु हृदय मे उनका अनुभव करने से हम उनके ज्यादा समीप आ जाते हैं।हम सदा हृदय मे ही रहते हैं।बाहर खुद से दूर गये तब भी वापस आ जाते हैं तो क्यों न हृदय मे ही विराजे श्रीकृष्ण के समीप उनकी परम शरण मे बने रहें।किसी को लगे हम तो सम्मुख विराजे प्रभु मे ही शरणभावना करते हैं तो वह भी ठीक है।प्रभु सब जगह हैं और सर्वसमर्थ हैं।यदि कोई बंबई मे बैठकर नाथद्वारा मे विराजे श्रीनाथजी को लक्ष्य कर बोलता रहे-श्रीकृष्ण:शरणं मम।तो प्रभु अवश्य उसके निवेदन को स्वीकारते हैं।घर मे और हृदय मे भी वे ही श्रीनाथजी हैं उनके प्रति भी लक्ष्य करके अष्टाक्षर का उच्चारण किया जा सकता है।पुष्टिमार्ग मे जगह जगह जितने भी सेव्यस्वरुप हैं उन सब रुपों मे स्वयं श्रीनाथजी ही तो विद्यमान हैं अतः संदेह नहीं होना चाहिये।निर्भय होकर सेव्यस्वरुप का दर्शन करते हुए श्रीकृष्ण:शरणं मम बोलते रहना चाहिए।
इसका अर्थ भगवान को शरणस्थल के रुप मे स्वीकारना तो है ही,मै उनकी शरण मे हूँ यह भी है।शरणागति का अनुष्ठान नहीं किया जाता है जो लक्ष्य प्राप्ति हेतु विधि विशेष की पुनरावृत्ति करना मात्र है।शरणागति का भाव उससे बढकर है।यह नित्य लीला से बिछुडे जीव की पुनः अपने प्रभु के पास लौटने की हृदय से की गयी विनती है।यह स्वयं को याद दिलाना भी है।सतत विचारों का आगमन लक्ष्य से ध्यान हटा देता है।यदि तब भी श्रीकृष्ण:शरणं मम बोला जाता रहे तो मन के भटकने की भी चिंता नहीं है।ये जो कहा है-मनुवा तो चहूं दिसी फिरे ये तो सुमिरन नाहीं।इसीके समाधानार्थ
महाप्रभुजी ने कहा-सतत श्रीकृष्ण:शरणं मम बोलते रहने की आदत डाल लो।मन इधर उधर घूमेगा,वापस ठिकाने आयेगा,आना ही पडेगा और जब भी आयेगा एक ही चीज सुनेगा-श्रीकृष्ण:शरणं मम-श्रीकृष्ण:शरणं मम।धीरे धीरे वह उसमे समाहित होने लगेगा,उसे वह अच्छा लगने लगेगा।फिर यह मंत्र तो साक्षात् स्वरुप है श्रीकृष्ण का,तो उसका प्रभाव कहां जायेगा,संबंध कहां जायेगा?जगत मे भी हम किसीका नाम निरंतर लेते रहें तो संबंध दृढ होता ही है।फिर अष्टाक्षर मंत्र भगवान का स्वरुप है इससे निरंतर किया गया उच्चारण कभी व्यर्थ नहीं जाता,यथासमय अनुग्रह की अनुभूति होने लगती है।
अनुष्ठान शब्द तो कोई तात्कालिक कार्य-योजना जैसा है जिसे पूरा किया फिर कुछ नहीं लेकिन शरणागति किसी तात्कालिक कार्यपूर्ति जैसी चीज नहीं है।और यदि यह परिणाम देने वाली है तो यह स्थायी अद्भुत-अलौकिक परिणाम देने वाली है अर्थात भगवद् प्राप्ति।ज्यादा अच्छा होगा अगर हम भगवान को प्राप्त करें ऐसा कहने के बजाय हम भगवान को प्राप्त हो जायेंगे यह भाव रखें।जगत मे प्रायः बोला जाता है-भगवान को प्यारे हो गये,भगवान के हो गये लेकिन भगवान को प्राप्त होना पुष्टिमार्ग मे सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति है अर्थात अपने मूल स्वरुप से पुनः नित्य लीला मे प्रविष्ट हो जाना है।इस दृष्टि से अनुष्ठान मर्यादामार्ग से जुडा शब्द मालूम होता है।पुष्टिमार्ग मे पुनः अपने प्रभु से मिलने की बात है अतः प्रभु को अपने मूल,सच्चे,आधारभूत शरणस्थल की तरह याद रखना ठीक ही है।यह श्रीकृष्ण:शरणं मम का अखंड स्मरण इसीके लिये है।

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