श्रीमहाप्रभुजी का संदेश:
श्रीमहाप्रभुजी का संदेश:
जिस समय किसी भी प्रकार तुम बहिर्मुख होगे अर्थात भगवान मे चित्त न रखकर अन्य विषयों मे चित्त रखोगे उस समय काल के प्रवाह मे रहे हुए देह और चित्तादि भी सब प्रकार तुम्हारा भक्षण करेंगे ऐसा मेरा मत है।
भगवान श्रीकृष्ण लौकिक नहीं हैं और वे लौकिक को नहीं मानते।इसलिये श्रीकृष्ण मे ही प्रेम होना चाहिये।इस लोक संबंधी सर्वस्व वही श्रीकृष्ण हैं और परलोक भी वही हैं अत एव सर्वभाव के द्वारा वही गोपीश श्रीकृष्ण सेवन योग्य हैं और तुम्हें ऐहिक तथा पारलौकिक सर्व पदार्थ वे ही देंगे।'
चिंता एक ही होती है लोक संबंधी या परलोक संबंधी।इसके लिये उन वैष्णवों के जीवन का अवलोकन किया जा सकता है जो पूरी तरह प्रभु को समर्पित रहे।उनका जीवन कैसे चला?भगवद् इच्छा से जब जैसा होना था होता रहा अभाव भी आये,पूर्तियां भी होती रहीं मगर जीवन मे आनंद बना रहा।आज भी कहीं कहीं इसे देखा जा सकता है।
थोडा ग्रहों की दृष्टि से देखें तो ग्रहों की दृष्टि होती है संसारी मनुष्यों पर।उनके कर्मानुसार ग्रह अभाव और पूर्ति की स्थिती उत्पन्न करते रहते हैं।वैष्णव पर दृष्टि होती है प्रभु की।केवल दृष्टि ही नहीं होती,वे उसे अपनाये रहते हैं "तू मेरो है"कहकर।वैष्णव को यह आवाज सुनायी पडनी चाहिए, अंगीकृति का अनुभव होना चाहिये।ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब है चित्त प्रभु से विमुख है।
आज यह स्थिती है कि वैष्णव सेवासत्संगस्मरण भी करते हैं और लोक,परलोक संबंधी चिंता भी करते हैं।परलोक संबंधी चिंता इतनी नहीं होती,उनकी दृष्टि मे लौकिक सुधर जाय वही बहुत है लेकिन वल्लभ इसका निषेध करते हैं।वे चेतावनी देते हैं कि लौकिक का आग्रह करने वाला प्रभु से विमुख रहेगा और विमुख रहनेवाले का काल भक्षण करेगा।जिस लौकिक रक्षा की चाह है वह लौकिक रक्षा ही निगल जायेगी जैसे आस्तीन का सांप।यह अहंताममता ही है जिसके आवरण से ग्रस्त रहने पर लौकिक रक्षा की कामना प्रबल हो जाती है।तब दूसरा कुछ भी सूझता नहीं।
जब कोई लौकिक चिंता लगती है तब क्या यह स्मरण रहता है कि यह चिंता प्रभु से विमुखता को दर्शा रही है।चिंता सावधान भी करती है और हमारी असजगता भी दर्शाती है।पता चल जाय तो हम चिंता को धन्यवाद देंगे कि अच्छा हुआ पता चला मै प्रभु से विमुख हूँ।यदि फिर भी चिंता करते रहे तो बडी हानि है।चित्त प्रभु को छोडकर अन्य विषयों मे जा रहा है।महाप्रभुजी कहते हैं-तुम्हें लौकिक, पारलौकिक की चिंता है तो वह ठीक है लेकिन तुम श्रीकृष्ण पर निर्भर क्यों नहीं होते?
प्रायः कहनेवाले कहते हैं-इसके लिये प्रभु को श्रम देना ठीक नहीं।'अच्छा है परंतु प्रभु को श्रम न देने का अर्थ यह नहीं है कि हम चिंता करें जो लौकिकासक्ति तथा प्रभु से विमुखता की सूचक है।
आखिर हम प्रभु से पृथक कर्ताभाव, स्वामीभाव रखते ही क्यों हैं,दास की तरह क्यों नहीं रहते?क्या स्वामी,दास का भरणपोषण नहीं करते?अवश्य करते हैं बस जीव को दासभाव से स्वामी पर निर्भर रहना सीख लेना चाहिए।वल्लभाज्ञा है-अभिमान का भली प्रकार से त्याग कर स्वामी के अधीन रहने की भावना करनी चाहिए।'
यह जो प्रभु को श्रम न देने की बात है वह भी ठीक है और उनके लिये है जिनमें दृढता है तथा जो परिपक्वता से इस विषय को समझे हुए हैं।जिनका नवीन आरंभ है,जिनका चित्त प्रभु को छोडकर अन्य विषयों मे जाता है उन्हें वल्लभ वाणी बोध देती है कि तुम हर तरह से कृष्ण का आश्रय कर लो और सारी फिक्र छोड दो क्योंकि यह कैसे होगा,वह कैसे होगा कृष्ण सारी परिस्थिति को संभाल लेंगे।
समस्या अविश्वास की आती है।विश्वास बनता नहीं।संसार पर भरोसा है अतः प्रभु पर भरोसा होता नहीं।संसार की अनुकूलता समझ मे आती है,प्रभु की अनुकूलता समझ मे नहीं आती।अब हम ही प्रभु के अनुकूल नहीं हैं तो प्रभु की अनुकूलता समझ मे आयेगी कैसे?इसलिए महाप्रभुजी की चेतावनी प्रभु के अनुकूल होने के लिये कहती है।हम अनुकूल होगये तो यह फिक्र न होगी कि प्रभु हमारे लौकिक,पारलौकिक विषयों के प्रति अनुकूल होंगे या नहीं!प्रभु तो अनुकूल ही हैं।संसार इसलिये प्रतिकूल लगता है क्योंकि हम प्रभु के अनुकूल नहीं हैं।यदि प्रभु के अनुकूल हैं त़ो वल्लभ का विवेकधैर्याश्रय संबंधी संदेश लौकिक प्रतिकूलता का भ्रम दूर कर देगा।अतः लौकिक अनुकूलता की चाह छोडकर जीवन को विवेकधैर्याश्रय से युक्त बनाये रखने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाय तो प्रभु की अनुकूलता का अनुभव होगा तथा लौकिक प्रतिकूलता का विचार भी नहीं आयेगा।प्रभु के अनुकूल न होने से ही संसार प्रतिकूल लगता है।इसके लिये लौकिक प्रतिकूलता जिम्मेदार नहीं अपितु हमारा प्रभु के अनुकूल न होना ही जिम्मेदार है।यही वल्लभ कह रहे हैं।
जिस समय किसी भी प्रकार तुम बहिर्मुख होगे अर्थात भगवान मे चित्त न रखकर अन्य विषयों मे चित्त रखोगे उस समय काल के प्रवाह मे रहे हुए देह और चित्तादि भी सब प्रकार तुम्हारा भक्षण करेंगे ऐसा मेरा मत है।
भगवान श्रीकृष्ण लौकिक नहीं हैं और वे लौकिक को नहीं मानते।इसलिये श्रीकृष्ण मे ही प्रेम होना चाहिये।इस लोक संबंधी सर्वस्व वही श्रीकृष्ण हैं और परलोक भी वही हैं अत एव सर्वभाव के द्वारा वही गोपीश श्रीकृष्ण सेवन योग्य हैं और तुम्हें ऐहिक तथा पारलौकिक सर्व पदार्थ वे ही देंगे।'
चिंता एक ही होती है लोक संबंधी या परलोक संबंधी।इसके लिये उन वैष्णवों के जीवन का अवलोकन किया जा सकता है जो पूरी तरह प्रभु को समर्पित रहे।उनका जीवन कैसे चला?भगवद् इच्छा से जब जैसा होना था होता रहा अभाव भी आये,पूर्तियां भी होती रहीं मगर जीवन मे आनंद बना रहा।आज भी कहीं कहीं इसे देखा जा सकता है।
थोडा ग्रहों की दृष्टि से देखें तो ग्रहों की दृष्टि होती है संसारी मनुष्यों पर।उनके कर्मानुसार ग्रह अभाव और पूर्ति की स्थिती उत्पन्न करते रहते हैं।वैष्णव पर दृष्टि होती है प्रभु की।केवल दृष्टि ही नहीं होती,वे उसे अपनाये रहते हैं "तू मेरो है"कहकर।वैष्णव को यह आवाज सुनायी पडनी चाहिए, अंगीकृति का अनुभव होना चाहिये।ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब है चित्त प्रभु से विमुख है।
आज यह स्थिती है कि वैष्णव सेवासत्संगस्मरण भी करते हैं और लोक,परलोक संबंधी चिंता भी करते हैं।परलोक संबंधी चिंता इतनी नहीं होती,उनकी दृष्टि मे लौकिक सुधर जाय वही बहुत है लेकिन वल्लभ इसका निषेध करते हैं।वे चेतावनी देते हैं कि लौकिक का आग्रह करने वाला प्रभु से विमुख रहेगा और विमुख रहनेवाले का काल भक्षण करेगा।जिस लौकिक रक्षा की चाह है वह लौकिक रक्षा ही निगल जायेगी जैसे आस्तीन का सांप।यह अहंताममता ही है जिसके आवरण से ग्रस्त रहने पर लौकिक रक्षा की कामना प्रबल हो जाती है।तब दूसरा कुछ भी सूझता नहीं।
जब कोई लौकिक चिंता लगती है तब क्या यह स्मरण रहता है कि यह चिंता प्रभु से विमुखता को दर्शा रही है।चिंता सावधान भी करती है और हमारी असजगता भी दर्शाती है।पता चल जाय तो हम चिंता को धन्यवाद देंगे कि अच्छा हुआ पता चला मै प्रभु से विमुख हूँ।यदि फिर भी चिंता करते रहे तो बडी हानि है।चित्त प्रभु को छोडकर अन्य विषयों मे जा रहा है।महाप्रभुजी कहते हैं-तुम्हें लौकिक, पारलौकिक की चिंता है तो वह ठीक है लेकिन तुम श्रीकृष्ण पर निर्भर क्यों नहीं होते?
प्रायः कहनेवाले कहते हैं-इसके लिये प्रभु को श्रम देना ठीक नहीं।'अच्छा है परंतु प्रभु को श्रम न देने का अर्थ यह नहीं है कि हम चिंता करें जो लौकिकासक्ति तथा प्रभु से विमुखता की सूचक है।
आखिर हम प्रभु से पृथक कर्ताभाव, स्वामीभाव रखते ही क्यों हैं,दास की तरह क्यों नहीं रहते?क्या स्वामी,दास का भरणपोषण नहीं करते?अवश्य करते हैं बस जीव को दासभाव से स्वामी पर निर्भर रहना सीख लेना चाहिए।वल्लभाज्ञा है-अभिमान का भली प्रकार से त्याग कर स्वामी के अधीन रहने की भावना करनी चाहिए।'
यह जो प्रभु को श्रम न देने की बात है वह भी ठीक है और उनके लिये है जिनमें दृढता है तथा जो परिपक्वता से इस विषय को समझे हुए हैं।जिनका नवीन आरंभ है,जिनका चित्त प्रभु को छोडकर अन्य विषयों मे जाता है उन्हें वल्लभ वाणी बोध देती है कि तुम हर तरह से कृष्ण का आश्रय कर लो और सारी फिक्र छोड दो क्योंकि यह कैसे होगा,वह कैसे होगा कृष्ण सारी परिस्थिति को संभाल लेंगे।
समस्या अविश्वास की आती है।विश्वास बनता नहीं।संसार पर भरोसा है अतः प्रभु पर भरोसा होता नहीं।संसार की अनुकूलता समझ मे आती है,प्रभु की अनुकूलता समझ मे नहीं आती।अब हम ही प्रभु के अनुकूल नहीं हैं तो प्रभु की अनुकूलता समझ मे आयेगी कैसे?इसलिए महाप्रभुजी की चेतावनी प्रभु के अनुकूल होने के लिये कहती है।हम अनुकूल होगये तो यह फिक्र न होगी कि प्रभु हमारे लौकिक,पारलौकिक विषयों के प्रति अनुकूल होंगे या नहीं!प्रभु तो अनुकूल ही हैं।संसार इसलिये प्रतिकूल लगता है क्योंकि हम प्रभु के अनुकूल नहीं हैं।यदि प्रभु के अनुकूल हैं त़ो वल्लभ का विवेकधैर्याश्रय संबंधी संदेश लौकिक प्रतिकूलता का भ्रम दूर कर देगा।अतः लौकिक अनुकूलता की चाह छोडकर जीवन को विवेकधैर्याश्रय से युक्त बनाये रखने की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाय तो प्रभु की अनुकूलता का अनुभव होगा तथा लौकिक प्रतिकूलता का विचार भी नहीं आयेगा।प्रभु के अनुकूल न होने से ही संसार प्रतिकूल लगता है।इसके लिये लौकिक प्रतिकूलता जिम्मेदार नहीं अपितु हमारा प्रभु के अनुकूल न होना ही जिम्मेदार है।यही वल्लभ कह रहे हैं।
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